शुक्रवार, 27 मई 2011

हमारा मोबाईल.......


मैंने बहुतों को देखा है...
जो अपना मोबाईल...
अपने से ऐसे 
चिपका के रखते हैं...
जैसे दो शरीर एक जान हों...! 
उन्हें देख कर मुझे  
कुछ ऐसे ख़्याल आये....

मेरा मोबाईल...
रहता है हर समय
मेरे हाथ में.
क्यूंकि..
न जाने कब
निकल कर मेरे सामने
खड़े हो जाते हो तुम ! 
न जाने कब
मोबाईल से निकल कर
मेरा हाथ थाम कर
साथ-साथ चलने लगते हो तुम !
और न जाने कब
मोबाईल से निकल कर
एक प्यारा सा चुम्बन
गालों पे मेरे
चिपका जाते हो !
और न जाने कब
तुम आओगे
मोबाईल से निकल कर
मेरे पास और.....
मुझे बाहों में समेट कर
धीरे से कहोगे
मेरे कानों में
कि....
तुम्हें मुझसे प्यार है....!!



आज की बारिश..........

आज की  बारिश
कुछ इस तरह हुई
कि...
मेरे मन को
कुछ नए से
एहसास दे गई......
और टेरेस पर बैठे-बैठे
बारिश में भीगते-भीगते
मैं कुछ इस तरह लिख गई.....








आज मैंने देखा
बादल का
एक छोटा सा टुकड़ा
तेजी से उड़ते हुए
और सोचा ये....
कि
इस पर बैठकर
तुम भी तो  सकते थे..... !

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बारिश की बूँदें
तन की अगन को
शांत कर गईं 
और 
मन को-
तुम.......!! 

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मैंने तुम्हें
आज फिर
महसूस किया.....
घने काले बादलों में,
कड़कती बिजली की चमक में,
बारिश की फुहार में,
तन पर गिरती
ठंडी बूंदों में,
और
चेहरे पर
गिरती जुल्फों को
हटाते हुए
जैसे तुम
कह रहे हो
कानों में मेरे...
कि-
तुम पास हो मेरे !
मेरे बहुत-बहुत पास !!

सोमवार, 23 मई 2011

 
 


मेरे  तुम......
 
मिट गई तेरे ह्रदय में
डूब कर सब पा लिया है !
खुद जो बढ़ कर हाथ तूने 
थाम कर अपना लिया है !!
न कभी सोचा था मैंने
तू है इतना पास मेरे !
जब,जहाँ चाहूं,तुझे पाऊँ
नयन बस मूँद मेरे !!
तू हमारा जब सहारा
फिर किनारा दूर है कब ?
बिन छुए स्पर्श कर लूं
जब,जहाँ चाहूँ वहां तब.......!!

गुरुवार, 19 मई 2011


भीगा मौन.....

बोलने वाले भी  
जाने क्या-क्या बोल जाते हैं
कहना होता है कुछ  
और कुछ और ही कह जाते है  
जहाँ ज़रुरत होती है खामोशी की
वहां शब्दों को यूँ ही 
व्यर्थ गँवाते हैं
और इस तरह वो...
भावनाओं का गीलापन तक  
महसूस नहीं कर पाते हैं
और फिर जिन्दगी भर 
अपने में नहीं...
बाहर ही कुछ खोजते रह जाते हैं,

मौन
में लिखे अक्षर भीगे ही होते हैं..!
ज़रुरत
है उनका गीलापन महसूस करने की !
जिसे
शायद बिरले ही समझ पाते हैं..!!
वर्ना
बोल-बोल कर 
शब्द
अपना महत्त्व खोते जाते हैं..!!

मंगलवार, 10 मई 2011

 








कृष्ण.....!!!(शरीर नहीं चेतना ) 



कृष्ण...!!!

हाँ,

तुमने खुद को  

हमेशा कृष्ण की जगह रखा

अपने इर्द-गिर्द  

गोपियों की कल्पना भी की

परन्तु मुझे......

रुक्मिणी की जगह  

न रख सके तुम !

वह अधिकार

जो कृष्ण ने रुक्मिणी को दिए

विवाह के बाद,

उसकी मर्यादा भी  

न रख सके तुम !

उस समय  

एक आम इंसान की तरह

तुम्हारे सारे भाव जागृत हो गए,

एक आम इंसान  की तरह  

"I AM ALWAYS RIGHT"

और तुम्हारा अहंकार  

हमारे बीच आ गए  !

फिर किस बात का  

झूठा दंभ भरते हो

बस ! यूँ ही खुद में कृष्ण को  

देखने की चेष्टा करते हो  !

कृष्ण तो एक चेतना  है....

एक शुद्ध समग्र चेतना  !!!

न स्त्री....!

न पुरुष.....!

शरीर से जुदा.... !

देह से अलग.... !

लेकिन तुम उनके शारीरिक क्रिया-कलापों का ही

उदाहरण देते रह गए ,

चेतना तक क्या कभी पहुँच पाए ?

मेरी भावनाओं को नकार कर

तुम बस  मेरे शरीर को ही टटोलते रह गए !

तुम्हारे इस उपापोह में

मैं कब अपने शरीर, अपने मन  से

अलग  हो  गई !

पता ही नहीं चला  !!

उस समय तो न पूछ पाई तुमसे

लेकिन आज पूछती हूँ....

कुछ खोज रहे थे तुम  ?

जो खोजा क्या वह पाया तुमने  ?

पता नहीं ?

बस इतना जानती हूँ  

कि तुम....

बस मेरे शरीर तक ही पहुंचे..

मेरी आत्मा तक तुम पहुँच ही नहीं  पाए....!!