चलो अच्छा हुआ अपनों में कोई गैर तो निकला
हमीं ने अब तलक रखा हुआ था राब्ता उससे !
ज़माने का चलन देखा....वो गैरों सा था जो अपना
संभाला था बहुत रिश्ता..मगर संभला न वो मुझसे !
कहा उसने न जाने क्या, कि दुश्मन हो गयी दुनिया
न दुनिया रह गयी अपनी...न ही रिश्ता कोई उससे !
न था काबिल मेरे वो शख्स खुद भी बदगुमां सा था
जुबान जब भी खुली उसकी,कहा कुछ बेवजह मुझसे !
खिले अब फूल गुलशन में वो मेरे नाम सब अपने
जो दी थी बद्दुआ उसने...लगी वो बन दुआ मुझसे !