कागज के टुकड़ों सा कभी कभी बिखरता है मन...! उड़ता जाता है कितनी ही ऊंचाइयों को छूता जाता है हवा की लहरों के संग कितने ही सँकरे तीखे मोड़ों से गुज़र कर टुकड़ा टुकड़ा... टकरा कर आपस में छू लेता है ज़मीन को थक हार कर....! फिर उभरते हैं.. उसमें कुछ अक्षर... कुछ सीधे-साधे.. कुछ टेढ़े-मेढ़े... और फिर कागज के टुकड़े जुड़ने लगते हैं यक ब यक... और कुछ ऐसी ही रचना आकार ले लेती है.... स्वतः ही..........!!
जल रही शम्मा बुझाते जाइये.. आप अब दिल में समाते जाइये..! जब मुनासिब ही नहीं रुकना तेरा.. रुठती हूँ मैं....मनाते जाइये..! शाम से दिल कर रहा है जुस्तजू.. प्यार की खुशबू लुटाते जाइये...! अब तलक है ये शहर भी अजनबी.. आप ही अपना बनाते जाइये...! छू के आहिस्ता से पलकों को मेरी.. नींद पलकों में सजाते जाइये...! रूठने में और आयेगा मज़ा.. आप अब मुझ को मनाते जाइये...! दिल ने चाहा था कहे कुछ आपसे.. आप भी कुछ तो सुनाते जाइये..! राह ए उल्फत में मिले 'पूनम' कोई ... फूल कदमों में बिछाते जाइये..! ***पूनम***