
समर्पण....
मेरी ज़िंदगी में
एक ऐसा मोड़ आया
जब लगा कि
हाथ से सब छूट गया
जब अपने भी
साथ छोड़ गए थे,
उस वक़्त.....
बस तुम साथ थे !!
और मैंने सब कुछ
पा लिया था दुबारा,
वो मैं जो खो गई थी कहीं...
लगभग मृतप्राय सी...
तुम्हारे हाथ का स्पर्श पा कर
फिर से लौट आयी अपने-आप में,
और एक बार फिर से
सांस लेने लगी मैं !
और आज हर वक़्त...
हाँ !अब हर वक़्त
तुम हो साथ मेरे !!
तुम्हारे साथ मैं कितना हूँ ?
मैं नहीं जानती..!
जानना चाहती भी नहीं !!
मेरी साँसें लौटा दीं हैं
तुमने एक बार फिर !
इस सब के लिए आज
यदि मैं खुद को
तुम्हें सौंप दूं तो....
क्या तुम्हें मंज़ूर होगा....??